लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2

युद्ध - भाग 2

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2901
आईएसबीएन :81-8143-197-9

Like this Hindi book 14 पाठकों को प्रिय

162 पाठक हैं

रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....

उन्नीस

 

चिकित्सा शिविर में खड़े राम अपने सैनिकों को देख रहे थे। सुषेण और उनके सहयोगी अग्निकाष्ठों और उल्काओं के प्रकाश में अत्यधिक व्यस्त थे। कुंभकर्ण के साथ हुए युद्ध में वानर सेना की क्षति अपेक्षा से कहीं अधिक हुई थी। राक्षसों के रथों, हाथियों और घोड़ों के सामने पदाति वानर पर्याप्त असुरक्षित थे। यह तो उनकी संख्या, उनका आत्मबल तथा उनके सेनानायकों का धैर्य एवं कौशल ही था, जो इस सेना को अक तक संभाले हुए था। कुंभकर्ण की मृत्यु के पश्चात् रावण के पुत्र देवान्तक और त्रिशिरा युद्ध के लिए आए थे। हनुमान के हाथों उनका वध हुआ था : किंतु सबसे भयंकर युद्ध किया था रावण के पुत्र अतिकाय ने। लगता था जैसे कुंभकर्ण ही पुनः जीवित होकर आ गया हो। वानर सेना त्राहि-त्राहि पुकार उठी थी। और अन्ततः सौमित्र लक्ष्मण के हाथों उसने युद्ध में अपने प्राण खोए थे। किंतु वह वानर-सेना की भयंकर क्षति कर गया था।

विभीषण सूचना लाए थे कि अतिकाय की मृत्यु पर रावण बहुत हताश हुआ था। उसे कुंभकर्ण के ही समान अतिकाय के बल और शौर्य पर भरोसा था। कुंभकर्ण के वध के कारण वह राम से भयभीत भी हुआ था और क्रुद्ध भी। अब अतिकाय के वध के कारण उसके मन में यही भाव लक्ष्मण के प्रति भी थे। विभीषण यह भी सूचना लाए थे कि रावण अपनी जय-पराजय की चिंता किए बिना राम और लक्ष्मण का वध करवाने का प्रयत्न करेगा। यह वध युद्ध क्षेत्र में भी हो सकता है और युद्ध क्षेत्र के बाहर भी। इसलिए राम और लक्ष्मण अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त रूप से सावधान रहें।

विभीषण यह सूचना भी लाए थे कि अतिकाय की मां धान्यमालिनी ने राजपरिषद् में रावण और उसके मंत्रियों के सम्मुख छाती पीट-पीटकर भयंकर विलाप किया था और रावण को बार-बार धिक्कारा था। उसने इस युद्ध के लिए प्रत्यक्ष रूप से रावण को दोषी ठहराया था। उसके कहे हुए वाक्य आज लंका के घर-घर में प्रचारित हो रहे थे ...राम तुम्हारा सोने का सिंहासन छीनने को नहीं जूझ रहा। फिर वह लंकावासियों का शत्रु कैसे हुआ। तुमने स्वयं अपने कर्म-दोष से अपने वंश को डुबोया है। ...धान्यमालिनी ने अपना मुंह-माथा पीट लिया था, '...सीता को जलाने के लिए मैं उसके सम्मुख रावण के कंठ में अपनी भुजाएं डाल-डालकर झूली थी। उस दुष्टता का फल मुझे आज यह मिला है कि मैं रावण के कंठ से लगकर पुत्र-शोक में बिलख-बिलखकर रोना चाहती हूं; किंतु रावण को पुत्र-शोक में रोने का भी अवकाश नहीं है...'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. तेरह
  13. चौदह
  14. पन्ह्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह
  18. उन्नीस
  19. बीस
  20. इक्कीस
  21. बाईस
  22. तेईस
  23. चौबीस

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book